परेशान हो न?
छाती के भीतर एक धुक धुकी सी है
रातों की नींद भी कहीं गुम सी है
मालूम है कि माहौल हमारे विपरीत है
डर है किसी अपने को खो जाने का
डर है हमारे जहां को नजर लग जाने का
दुकानें भी बंद है, सड़के भी वीरान है,
मिट्टी से खेलने वाले बच्चे भी मां की आँचल में छुपे बैठे हैं।
दादी मां कहती हैं हमारा मुल्क बीमार से लगता है।
एक बदसूरत से आहट का आलम सा लगता है।
पर कुछ हैं सफेद कोट में, कुछ हैं खाकी वर्दी में जो ये बता रहे ठहरो इतना आसान नहीं है भारत को पिछाड़ना
महज़ कुछ हफ्तों बाद कई दिशाओं से आ रही है राहत की महक।
देखना फिर से उठेगा ये हिंदुस्तान, फिर से गूंजेगा एक शोर।
गली महोल्लों में बैट बॉल लिए फिर से आएगा बच्चों का शोर
देखना बहुत जल्द बसों में हमारे मुल्क के प्रेमी हाथ पकड़ कर एक दूसरे का बैठेंगे।
ब्रेक लगने पर एक दूसरे को यूं चुपके से चूमेंगे।
लौटेगा लड़कियों के गोलगप्पे वाले भैया का ठेला
लौटेगी फिर से वो शाम जहां सिगरेट पीते हुए लगता था हमारा रेला।
फिर से हम दोस्तों से मिलकर यूं गले लगाएंगे।
क्या बे मरा नहीं तू कहकर उसका मजाक उड़ाएंगे।
देखना फिर से गूंजेगी मंदिरों में घंटियां,
फिर से गूंजेगी मस्जिद अजान के स्वरों से।
जाएंगे बच्चे स्कूल और ट्यूशन के लिए,
फिर से एक मां रस्ता निहारेगी बच्चे के लौट आने का।
एक बार फिर 2 प्रेमी जोड़े भींच लेंगे एक दूसरे को अपने बाजुओं से।
बस शर्त है एक परीक्षा की।
परिक्षा है एकान्त के अभ्यास का और अपने समाज पर विश्वास का।
इसमें जीत है अपनी, अपनों की और अपने इस देश की।
तो कुछ दिन रहिये घरों में अपनों के साथ।
धागों में पिरोइये अपने रिश्ते को जो कभी न टूटे ।
जो मां मांगती थी तम्हारा वक़्त आज उसे वक़्त देने का समय है
एक पिता के साथ खेतों में सैर करने का समय है।
तुम ही कहते थे न ये बचपन न जाने कहां चला गया
तो आओ लौट चले बचपन में और खेलें अजीर वजीर क्या बादशाह का खेल।
आओ चलो झाड़ लें प्रेमचंद्र और गुलजार के किताबों की धूल
चलो छोटे से बग़ीचे में लगाएं गुलाब और गुडहल के फूल।
एक गांठ बांधिए मन में।
बीमारी देश में है तो हो, पर देश न बीमार हो।
दूरियां कुछ दिन की है तो हो, पर ये अपनापन कम न हो।
पास बैठकर बात करने में हिचक है तो हो, पर शब्द तीखे न हों।
परेशान हो न! लाज़िमी है,
लेकिन थोड़ा धैर्य रखना होगा।
देखना फिर से एक दिन नया सवेरा आएगा और हम जैसे जिद्दी लोग एक और लड़ाई जीतने में कामयाब होंगे।
छाती के भीतर एक धुक धुकी सी है
रातों की नींद भी कहीं गुम सी है
मालूम है कि माहौल हमारे विपरीत है
डर है किसी अपने को खो जाने का
डर है हमारे जहां को नजर लग जाने का
दुकानें भी बंद है, सड़के भी वीरान है,
मिट्टी से खेलने वाले बच्चे भी मां की आँचल में छुपे बैठे हैं।
दादी मां कहती हैं हमारा मुल्क बीमार से लगता है।
एक बदसूरत से आहट का आलम सा लगता है।
पर कुछ हैं सफेद कोट में, कुछ हैं खाकी वर्दी में जो ये बता रहे ठहरो इतना आसान नहीं है भारत को पिछाड़ना
महज़ कुछ हफ्तों बाद कई दिशाओं से आ रही है राहत की महक।
देखना फिर से उठेगा ये हिंदुस्तान, फिर से गूंजेगा एक शोर।
गली महोल्लों में बैट बॉल लिए फिर से आएगा बच्चों का शोर
देखना बहुत जल्द बसों में हमारे मुल्क के प्रेमी हाथ पकड़ कर एक दूसरे का बैठेंगे।
ब्रेक लगने पर एक दूसरे को यूं चुपके से चूमेंगे।
लौटेगा लड़कियों के गोलगप्पे वाले भैया का ठेला
लौटेगी फिर से वो शाम जहां सिगरेट पीते हुए लगता था हमारा रेला।
फिर से हम दोस्तों से मिलकर यूं गले लगाएंगे।
क्या बे मरा नहीं तू कहकर उसका मजाक उड़ाएंगे।
देखना फिर से गूंजेगी मंदिरों में घंटियां,
फिर से गूंजेगी मस्जिद अजान के स्वरों से।
जाएंगे बच्चे स्कूल और ट्यूशन के लिए,
फिर से एक मां रस्ता निहारेगी बच्चे के लौट आने का।
एक बार फिर 2 प्रेमी जोड़े भींच लेंगे एक दूसरे को अपने बाजुओं से।
बस शर्त है एक परीक्षा की।
परिक्षा है एकान्त के अभ्यास का और अपने समाज पर विश्वास का।
इसमें जीत है अपनी, अपनों की और अपने इस देश की।
तो कुछ दिन रहिये घरों में अपनों के साथ।
धागों में पिरोइये अपने रिश्ते को जो कभी न टूटे ।
जो मां मांगती थी तम्हारा वक़्त आज उसे वक़्त देने का समय है
एक पिता के साथ खेतों में सैर करने का समय है।
तुम ही कहते थे न ये बचपन न जाने कहां चला गया
तो आओ लौट चले बचपन में और खेलें अजीर वजीर क्या बादशाह का खेल।
आओ चलो झाड़ लें प्रेमचंद्र और गुलजार के किताबों की धूल
चलो छोटे से बग़ीचे में लगाएं गुलाब और गुडहल के फूल।
एक गांठ बांधिए मन में।
बीमारी देश में है तो हो, पर देश न बीमार हो।
दूरियां कुछ दिन की है तो हो, पर ये अपनापन कम न हो।
पास बैठकर बात करने में हिचक है तो हो, पर शब्द तीखे न हों।
परेशान हो न! लाज़िमी है,
लेकिन थोड़ा धैर्य रखना होगा।
देखना फिर से एक दिन नया सवेरा आएगा और हम जैसे जिद्दी लोग एक और लड़ाई जीतने में कामयाब होंगे।
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