कहानी
आज उसकी माहवारी का तीसरा दिन है
पैरों से चलने की ताकत नहीं है
बिस्तर से उठने की हिम्मत नहीं है।
न रो सकती है, न इलाज के लिए जा सकती है,
अपना ये दर्द वो किसी से बांट भी नहीं सकती है।
कल जब वो दुकान से विष्पर पैड का नाम फुसफुसाई थी।
बगल में खड़े कुछ मर्दों ने अपनी तिरछी नजरें उसपर गड़ाई थी।
वहां से निकलते ही वो थोड़ा असहज सी नज़र आई थी।
क्योंकि पीछे उसके कुर्ते में रक्त की बूंदें समाई थी।
सुबह उठते ही पेट की अंतड़ियां दर्द से खिंची हुई हैं,
मंदिर में जाने के लिए मां मना की हुई है।
ऑफिस जाने से पहले थोड़ा सहमी हुई है ,
कुर्सी पर देर तलक बैठने की सोच से थोड़ा डरी हुई है।
बॉस ने आज काम को देर से करने की झड़प लगाता है।
क्या करे छूट्टी लेकर भी तो 5 दिन घर में बैठा नहीं जाता है।
सहयोगी भी उसे कनखियों से देख बार बार मुस्कुराता है,
बात करता है दूसरों से और उसे ही निशाना बनाता है।
ये लड़कियां भी न लड़कों की बराबरी करने में कोई कसर नहीं छोड़ती है,
जबकि हर महीने खुद को 5 दिन सम्भाल तक नहीं पाती हैं।
वो तो शुक्र है हम मर्द इनके नखरों को संभाल लेते हैं।
और इन्हें बराबरी का मौका देते है।
अरे ओ खुद को मर्द कहने वाले नामर्द
वो तुम्हारी इसी सोच की वजह से स्त्री होने पर घबराती है।
अपने इस दर्द को वो समाज से छुपाती है
आज वो सेनेटरी नैपकिन में जो रक्त बहाती है,
इसी रक्त की बदौलत वो स्त्री कहलाती है।
और इसी माहवारी के दर्द से वो खुद को सम्भालती है
जो अपनी जान पर खेलकर तुम्हें दुनिया में लाती है।
इसलिए अरे ओ नाम के मर्दों
न हँसो उसपर जब वो दर्द से कराहती है।
क्योंकि इसी माहवारी की बदौलत वो तुम्हें
भ्रूण से इंसान बनाती है
आज उसकी माहवारी का तीसरा दिन है
पैरों से चलने की ताकत नहीं है
बिस्तर से उठने की हिम्मत नहीं है।
न रो सकती है, न इलाज के लिए जा सकती है,
अपना ये दर्द वो किसी से बांट भी नहीं सकती है।
कल जब वो दुकान से विष्पर पैड का नाम फुसफुसाई थी।
बगल में खड़े कुछ मर्दों ने अपनी तिरछी नजरें उसपर गड़ाई थी।
वहां से निकलते ही वो थोड़ा असहज सी नज़र आई थी।
क्योंकि पीछे उसके कुर्ते में रक्त की बूंदें समाई थी।
सुबह उठते ही पेट की अंतड़ियां दर्द से खिंची हुई हैं,
मंदिर में जाने के लिए मां मना की हुई है।
ऑफिस जाने से पहले थोड़ा सहमी हुई है ,
कुर्सी पर देर तलक बैठने की सोच से थोड़ा डरी हुई है।
बॉस ने आज काम को देर से करने की झड़प लगाता है।
क्या करे छूट्टी लेकर भी तो 5 दिन घर में बैठा नहीं जाता है।
सहयोगी भी उसे कनखियों से देख बार बार मुस्कुराता है,
बात करता है दूसरों से और उसे ही निशाना बनाता है।
ये लड़कियां भी न लड़कों की बराबरी करने में कोई कसर नहीं छोड़ती है,
जबकि हर महीने खुद को 5 दिन सम्भाल तक नहीं पाती हैं।
वो तो शुक्र है हम मर्द इनके नखरों को संभाल लेते हैं।
और इन्हें बराबरी का मौका देते है।
अरे ओ खुद को मर्द कहने वाले नामर्द
वो तुम्हारी इसी सोच की वजह से स्त्री होने पर घबराती है।
अपने इस दर्द को वो समाज से छुपाती है
आज वो सेनेटरी नैपकिन में जो रक्त बहाती है,
इसी रक्त की बदौलत वो स्त्री कहलाती है।
और इसी माहवारी के दर्द से वो खुद को सम्भालती है
जो अपनी जान पर खेलकर तुम्हें दुनिया में लाती है।
इसलिए अरे ओ नाम के मर्दों
न हँसो उसपर जब वो दर्द से कराहती है।
क्योंकि इसी माहवारी की बदौलत वो तुम्हें
भ्रूण से इंसान बनाती है
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